Saturday, January 10, 2009

गोता

ये कोई चीख नही सन्नाटे की चहचहाहट या गजल कह दू अखाकी आतमखोरी
गोता गुमसुदा कह दू
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ये ज्ञान दशा में कही तू फंसा
बस जनम भयो बनकर भारी ।
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दुनीयाकी हँसी कहके ठिठ्वे सुनके ये हंसत न हरी नारी
ये भेद भला तू चमक गयो बस अंक ये रंग रह्यो सारी ।
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भले जिल मिलाती गति तेज तारी
खरे अंतिम ते थाशे पुंज माही ।
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कब जागेगा तू यही तो सहारा है !


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