Saturday, November 14, 2009

तू मनवा

पागल न बन तू मनवा
कर न लहके
येतो गति है माया
कैसे हो सदके...
कैसी ग़लत है सदके कैसी ये आशा
न समज को मई समजा कैसा फ़साना
हर बार हर पहलु में शतरंजी पाशा
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मत खोल ये बाज़ी बार बार
जितने की आदत है बुरी
जित सकते हो कई बार
अब हार कर देखो बाजी !!
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डर के मारे न लब्जे लूटाना !!
तेरी दुनिया में ये बीमारी है सारी !!!
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ना समज को समजने की बाज़ी जो है छेड़ी !!
हार के ही जितना होगा जानते है हम ।के दम लेने में ही राश आया है !!!
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हरेक चीज़ को समजने की जुर्रत क्यों करे !
जाने किसीने धमकाया है मुझे !
सबके सब ये नशेमे लिखा
और वो भी शायद नशे के लिए !!
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उसीके ही सहारे बैठ कर लिखता हूँ उसीके बारे में
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राधा बन गई राम
भक्त अब कौन कछु सब काम !!


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पत्ते वोही है विध विध है बा जी !!
मन फट फट से उड़ा ऊँचे बैठा डाली पर
ये उड़ने ये मंजिल यही जिंदगी क्या ?
ओ गुण मंडल तू ही रास रचा दे
मन गुण  कर कछु गा ये !
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शेर ने क्यों मारा! हिरनों ने क्यों नही !!
यही तो बीमारी है सारी ना समज को समजने की !


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जुल्मातो की जिंदगी है कयामत तक
गिरते ही जाते है तब सूरज तारे बन जाते है !!
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